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प्रयागराज: प्रयागराज में महाकुंभ के दौरान एक साथ 5 हजार नागा साधु बनने की प्रक्रिया शुरू हो गई है। यह सभी साधु जूना अखाड़े से जुड़े हुए हैं। शनिवार को इन साधकों ने संगम घाट पर अपनी और अपनी सात पीढ़ियों का पिंडदान किया, जो उनके नागा साधु बनने की प्रक्रिया का अहम हिस्सा था। नागा साधु बनने से पहले साधकों को अवधूत बनने की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है, जिसमें 24 घंटे की तपस्या और पिंडदान जैसी कठिन प्रक्रियाएं शामिल होती हैं। संगम घाट पर इन साधकों ने 17 पिंडों का दान किया, जिनमें से 16 उनके पूर्वजों के और एक खुद का था।
19 जनवरी को जूना अखाड़े के आचार्य महामंडलेश्वर अवधेशानंद गिरि जी महाराज इन साधकों को मंत्र देंगे। 29 जनवरी को मौनी अमावस्या के दिन इन साधकों को नागा साधु का दीक्षा प्राप्त होगा। जूना अखाड़ा भारत का सबसे बड़ा अखाड़ा है, जिसमें लगभग 5 लाख नागा साधु और महामंडलेश्वर संन्यासी शामिल हैं। महाकुंभ में इस बार 20 से 25 हजार नागा साधु बनाए जाने का अनुमान है। नागा साधुओं को सनातन धर्म का रक्षक माना जाता है।
नागा बनने की प्रक्रिया:
नागा बनने के लिए साधकों को तीन स्टेज से गुजरना पड़ता है:
-1. महापुरुष स्टेज: इस स्टेज में साधक को ‘महापुरुष’ घोषित किया जाता है। यहां पर उसे पंच संस्कार दिए जाते हैं और गुरु अपनी प्रेम कटारी से उसकी चोटी काटते हैं।
2. अवधूत स्टेज: महापुरुष बनने के बाद साधक को अवधूत बनने की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। इसमें साधक को खुद का पिंडदान करना पड़ता है, 108 डुबकियां लगानी पड़ती हैं और उपवास रखना होता है।
3. दिगंबर स्टेज: अवधूत बनने के बाद, साधक को दिगंबर बनने के लिए शाही स्नान से पहले तंगतोड़ संस्कार से गुजरना होता है। इस प्रक्रिया में उसे अपनी जननांग की नस खींचवानी होती है और फिर वह नागा साधु बनता है।
महाकुंभ में नागा साधु बनने के बाद इन्हें अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है। प्रयागराज के कुंभ में इन्हें ‘नागा’ कहा जाता है, वहीं उज्जैन में इन्हें ‘खूनी नागा’, हरिद्वार में ‘बर्फानी नागा’ और नासिक में ‘खिचड़िया नागा’ कहा जाता है। जूना अखाड़े की स्थापना 1145 में उत्तरांचल के कर्णप्रयाग में की गई थी। यह अखाड़ा भगवान शिव को अपना आदि देव मानता है और इसमें सबसे ज्यादा नागा साधु शामिल हैं। जूना अखाड़े के प्रमुख महापुरुष और संत आज भी इस अखाड़े में अपनी तपस्या और साधना में व्यस्त रहते हैं।
नागा संन्यासियों की परंपरा भारत में अत्यंत प्राचीन है। इनकी प्रेरणा के स्रोत विभिन्न ऋषि-मुनि रहे हैं, जिनमें पतंजलि, अवदूत मुनि कपिल और ऋषभदेव प्रमुख हैं। इन्हें दत्तात्रेय अपना इष्ट देवता मानते हैं। नागा साधुओं के दो प्रमुख अंग होते हैं—शस्त्रधारी और शास्त्रधारी। शस्त्रधारी साधु युद्ध की कला में निपुण होते हैं और शास्त्रधारी साधु वे होते हैं जो शास्त्रों का अध्ययन करते हैं।
नागा साधु हमेशा से धर्म और शासकों के खिलाफ लड़ाइयों में भाग लेते रहे हैं। उनके शौर्य की गाथाएं इतिहास में दर्ज हैं। विभिन्न युद्धों में, जैसे 1666 में हरिद्वार में और 1757 में गोकुल में, नागा साधुओं ने वीरता से युद्ध लड़ा। इनकी वीरता की कहानी आज भी सुनाई जाती है, और इनका इतिहास गवाह है कि यह साधु अपनी आस्थाओं और आदर्शों के लिए हमेशा संघर्ष करते रहे हैं।v