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मुकेश सहनी की आरक्षण यात्रा के सियासी मायने?

100 दिन, 80 जिलों की यात्रा और गंगाजल की सौगंध के जरिये सियासी जमीन तलाश रहे सहनी.

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सिटी पोस्ट लाइव :बिहार की सियासत में एक झटके में अपनी अलग पहचान बनानेवाले वीआइपी पार्टी के सुप्रीमो  पिछले 9 महीने से हाशिये पर हैं.उन्हें फर्श से अर्श तक ले जानेवाली बीजेपी ने उन्हें एक झटके में अर्श से फर्श पर लाकर खड़ा कर दिया है.एकबार फिर से अपनी राजनीतिक जमीन तलाशने के लिए VIP सुप्रीमो मुकेश सहनी निषाद आरक्षण यात्रा पर निकल चुके हैं.26 जुलाई से वे निषाद आरक्षण संकल्प यात्रा पर निकल चुके हैं. अपने 100 दिनों की यात्रा के दौरान वो  80 जिलों में जायेगें.इस दौरान वे निषाद जाति के लोगों को गंगाजल की सौगंध दिलाएंगे.

 

18 जुलाई को NDA और INDIA गठबंधन की हुई दो बड़ी बैठकों में न तो उन्हें NDA में तवज्जो दी गई और न ही INDIA ने ही उन्हें भाव दिया.जबकि केंद्र की तरफ से Y प्लस की सुरक्षा मिलने के बाद ये तय माना जा रहा था कि वे NDA का हिस्सा बनेंगे. ऐसे में एक बार फिर से चर्चा शुरू हो गई है कि खुद को गरीब मल्लाह का बेटा कहने वाले मुकेश सहनी आखिर बिहार की सियासत में यात्रा से हासिल क्या करना चाहते हैं? सहनी के लिए गठबंधन का हिस्सा बनना जरूरी है? या भाजपा के लिए सहनी मजबूरी हैं? निषाद आरक्षण संकल्प यात्रा के तहत अगले 100 दिनों तक मुकेश सहनी बिहार, झारखंड और यूपी के 80 जिलों का दौरा करेंगे. इस दौरान वे निषाद जाति के लोगों को गंगा जल की सौगंध दिलाएंगे कि वे लोकसभा चुनाव में अपना वोट नहीं बेचेंगे. अपने भविष्य और बच्चों को बेहतर शिक्षा देने के लिए उनके साथ एकजुट रहेंगे. उनका साथ देने वाले घरों के आगे वे स्टीकर भी चिपकाएंगे.

 

मुकेश सहनी के मुताबिक वो सरकार पर निषाद समुदाय को ओबीसी कैटेगरी से निकालकर एससी कैटेगरी में शामिल कराना चाहते हैं. इसके साथ ही यात्रा पूरी होने के बाद वे पार्टी के स्थापना दिवस के मौके पर 4 नवंबर को तय करेंगे कि उन्हें किस गठबंधन का हिस्सा बनना चाहिए.इस यात्रा से मुकेश सहनी अपना जनाधार बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं. वे राष्ट्रीय पार्टियों को अपनी ताकत का भी एहसास कराना चाहते हैं. वे कहते हैं कि राजनीति में बारगेन करने के लिए जरूरी होता है जनाधार का होना. बिहार में दलित लीडर के रूप में चिराग पासवान अब पूरी तरह स्वीकार्य हैं.

 

उसी तरह कुशवाहा को कोइरी लीडर के रूप में जाना जाता है. जीतन राम मांझी भी खुद को महादलित लीडर के रूप में स्थापित कर लिए हैं, लेकिन सहनी अभी तक अपनी राजनीतिक जमीन को साबित करने में विफल रहे हैं. लोकसभा चुनाव से पहले वे इसे भुनाना चाहते हैं. इसी के आधार वे गठबंधन में अपनी जगह बनाने की कोशिश करेंगे.मुकेश सहनी पिछले 5 साल से बिहार में निषाद समुदाय का नेता बनना चाहते हैं. अलग-अलग मंचों पर वे इसकी घोषणा भी कर चुके हैं. उनका दावा है कि बिहार में लगभग 14% निषाद की आबादी है, जो अलग-अलग 15 उपजातियों में बंटी हुई है, लेकिन पिछले 5 वर्षों में अभी तक निषाद समुदाय सहनी पर अपना विश्वास नहीं जता पाया है.

 

2019 के लोकसभा चुनाव में वीआईपी यूपीए गठबंधन से 4 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ी. लेकिन एक भी सीट जीतने में कामयाब नहीं हो पाई. खुद सहनी खगड़िया से हार गए थे. पार्टी को मात्र 6 लाख 60 हजार, 706 वोट यानी 1.7% वोट मिले थे.2020 विधानसभा चुनाव में वीआईपी एनडीए में शामिल हो गई. 13 सीटों पर चुनाव लड़ी लेकिन  4 सीटें जीतने में सफल रही. ये विधायक भी बाद में बीजेपी में शामिल हो गए. पार्टी को कुल 6 लाख 39 हजार 840 वोट प्राप्त हुए .यानी 1.5 फीसदी वोट मिले.इसके बाद हुए दो उपचुनावों कुढ़नी और बोचहां में वीआईपी अपना उम्मीदवार उतारी. निषाद बहुल इलाका होने के बाद भी दोनों चुनाव में पार्टी तीसरे और चौथे नंबर की पार्टी बनकर रह गई. कुढ़नी उपचुनाव में पार्टी को मात्र 10 हजार वोट मिले थे. जबकि बोचहां उपचुनाव में वीआईपी के उम्मीदवार गीता कुमारी को 29 हजार 279 वोट मिले थे.

 

बीजेपी देश भर में पिछड़े वोट बैंक को अपने पाले में करने की कोशिश कर रही है. इसके लिए  अलग-अलग राज्यों में छोटी-छोटी पार्टियों को अपने खेमे में गोलबंद कर रही है. बिहार में अभी जाति सबसे बड़ा फैक्टर है. इसे ध्यान में रखते हुए उसका पूरा फोकस जाति आधारित पार्टियों को अपने पाले में करने की है. यही कारण है कि जीतन राम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा, चिराग पासवान और पशुपति पारस को अपने पाले में ले आई है.मुकेश सहनी भी जाति आधारित पार्टी के ही अगुआ हैं. ऐसे में बीजेपी इनके उपर भी डोरा डाल रही है. बीजेपी जानती है कि लालू यादव के MY(मुस्लिम-यादव) और नीतीश कुमार के (कुर्मी और अतिपिछड़ा) वोट बैंक का मुकाबला इन दलों को साथ लाकर ही किया जा सकता है.

 

दूसरी तरफ, मुकेश सहनी या अन्य छोटी पार्टियां भी गठबंधन के महत्व को समझती हैं. वे अपनी सियासी जमीन के बारे में जानती हैं . बिना गठबंधन के एक सीट जीत पाना भी मुश्किल है, ये उन्हें पता है.  ऐसे में बिना किसी पार्टियों का समर्थन हासिल किए हुए चुनाव लड़ना और जीत लेना संभव नहीं है. चिराग पासवान 2020 के विधानसभा चुनाव में ये फॉर्मूला अपना चुके हैं. वे 40 से ज्यादा विधानसभा क्षेत्र में अपने उम्मीदवार उतारे लेकिन एक सीट पर भी जीत नहीं दर्ज कर पाए.

 

मुकेश सहनी बिहार की सियासत से फिलहाल पूरी तरह आउट हैं. उनकी पार्टी का फिलहाल किसी सदन में कोई नेता नहीं है, जबकि 2020 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने अपने कोटे में आई 121 सीट में से 11 सीट VIP को दी थी. इनमें से चार सीट पर VIP को जीत भी मिली.इस जीत ने सहनी को बिहार की सियासत में नई ताकत दी थी. इतना ही नहीं सरकार बनने के बाद मुकेश सहनी को बिहार सरकार में मंत्री भी बनाया गया, लेकिन उन्होंने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा के खिलाफ कुछ सीटों पर अपने प्रत्याशी उतार दिए. इससे भाजपा खफा हो गई.दो साल के अंदर 2022 में बीजेपी ने मुकेश सहनी को अर्श से फर्श पर लाकर खड़ा कर दिया. उनके सभी विधायकों को अपने पाले में कर लिया. सहनी को मंत्री पद के साथ विधान पार्षद पद से भी इस्तीफा देना पड़ा .

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