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लालू यादव के सियासी धमाके का मतलब .

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सिटी पोस्ट लाइव :  लालू प्रसाद यादव ने  अगस्त में केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के गिर जाने की भविष्यवाणी कर राजनीतिक धमाका कर दिया है.लालूजी के दावे में कितना दम है किसी को पता नहीं लेकिन लालू यादव की बात को कोई हलके में नहीं लेता. लालू यादव समय-समय पर वे ऐसे शिगूफे छोड़ते रहे हैं. लालू के शिगूफे भाजपा को मुश्किल में भी डालते रहे हैं. लालू के ताजा दावे का आधार यही ह कि नरेंद्र मोदी की सरकार फिलवक्त सहयोगी दलों की बैसाखी पर टिकी है. इनमें दो दलों की भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण है. एक है आंध्र प्रदेश की चंद्रबाबू नायडू के नेतृत्व वाली तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) और दूसरा दल है बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व वाला जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू).

 टीडीपी को आंध्र प्रदेश में बीजेपी  ने समर्थन दिया है. हालांकि टीडीपी के साथ बीजेपी  न भी रहे तो उसके पास विधायकों की सरकार बनाने-चलाने लायक पर्याप्त संख्या है. अलबत्ता बिहार में नीतीश कुमार की सरकार को बीजेपी की जरूरत जरूर है. पर, नीतीश के लिए आसानी यह है कि वे बीजेपी का साथ छोड़ भी दें तो आरजेडी या इंडिया ब्लाक की दूसरी पार्टियां उनकी सरकार को समर्थन देने के लिए तैयार बैठी हैं.

बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान 2015 में उन्होंने यह शिगूफा छोड़ा कि बीजेपी  आरक्षण खत्म कर देगी. उनकी इस बात पर बिहार के लोगों ने भरोसा भी किया और बीजेपी को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी. इस बार लोकसभा चुनाव के दौरान लालू ने संविधान बदलने का शिगूफा छोड़ा, जो बड़ी तेजी से इंडिया ब्लाक की पार्टियों ने पूरे देश में फैला दिया. आम आदमी को संविधान से कोई खास मतलब नहीं, लेकिन इसका भावार्थ तो लोग यही समझते हैं कि ऐसा होने पर उनको मिल रहा आरक्षण खत्म हो जाएगा. इस साल के अंत में तीन राज्यों- महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में विधानसभा के चुनाव होने हैं. ऐसे मौके पर मोदी सरकार गिरने का अंदेशा जता कर या यों कहें कि दाव कर लालू ने फिर एक शिगूफा छोड़ दिया है.

अब राजनीति में नैतिकता और विश्वसनीयता की बात बेमानी हो गई है, पर उतना क्षरण भी नहीं हुआ है, जितनी चर्चा होती है. टीडीपी की विश्वसनीयता पर संदेह करने के पहले कुछ बातें जान लेना चाहिए. वर्ष 2019 में टीडीपी प्रमुख चंद्रबाबू नायडू ने नरेंद्र मोदी के खिलाफ मोर्चा खोल रखा था.बीजेपी  विरोधी दलों को एक साथ लाने की उन्होंने पूरी कोशिश की. नायडू की पहल पर ही विपक्षी पार्टियों की कोलकाता से लेकर दिल्ली तक बैठक और रैलियां होती रहीं. चुनाव आते-आते विपक्षी एकता की कड़ियां बिखर गईं और नायडू हाशिए पर चले गए. जिस वक्त उन्होंने मोदी के खिलाफ मोर्चा खोला था, उस वक्त वे आंध्र प्रदेश के सीएम थे. मोदी का तो कुछ नहीं बिगड़ा, पर चंद्रबाबू नायडू की मुख्यमंत्री की कुर्सी चली गई थी. तब से वे राजनीतिक वनवास का दंश झेल रहे थे. इस बार आंध्र प्रदेश विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव के पहले चंद्रबाबू खुद चल कर भाजपा के करीब आए थे. ऐसा पहली बार नहीं था. इसके पहले भी वे भाजपा के साथ मानसिक तौर पर एक बार जुड़े थे, जब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी.

 उनकी पार्टी सरकार में शामिल तो नहीं थी, लेकिन वाजपेयी सरकार को बाहर से समर्थन दे रही थी. उनके ही समर्थन वापस लेने से वाजपेयी सरकार अल्पमत में आई थी. विश्वासमत के दौरान एक वोट के कारण वाजपेयी सरकार गिर गई थी. इस बार उन्होंने न सिर्फ भाजपा से चुनाव पूर्व गठबंधन किया, बल्कि चुनाव बाद केंद्र की सरकार में उनकी पार्टी भी शामिल है.

चंद्रबाबू नायडू ने अमरावती को राजधानी बनाने का सपना देखा था. सीएम रहते उन्होंने 2015 में अमरावती को राजधानी बनाने की नींव रखी थी. उनकी सरकार 2019 में चली गई. तब से यह प्रोजेक्ट अधूरा था. अमरावती को राजधानी के रूप में विकसित करने के लिए सिंगापुर की असेंडेस-सिगंब्रिज और सेम्बकॉर्प को सरकार ने जिम्मा दिया था. तब तकरीबन 33 हजार करोड़ खर्च का अनुमान था. अब तो उसकी लागत 40 हजार करोड़ के आसपास है. आंध्र प्रदेश की सत्ता में आते ही नायडू अपने सपने को पूरा करना चाहते हैं. जाहिर है कि केंद्र सरकार की मदद के बिना यह संभव नहीं है. यह भी हो सकता है सरकार को समर्थन देने के लिए नायडू ने नरेंद्र मोदी के सामने पहले ही यह रखी हो और उनकी रजामंदी के बाद नायडू ने टीडीपी को सरकार का हिस्सा बनने की हरी झंडी दिखाई हो.

नीतीश कुमार के दोनों हाथ में लड्डू है. अब तक का अनुभव तो यही रहा है कि बिहार की सत्ता नीतीश कुमार के जेडीयू के बिना अधूरी है. जेडीयू इसी का फायदा उठाता रहा है. नीतीश को जितनी चिंता अपनी कुर्सी के सुरक्षित रहने की है, उतनी ही बेचैनी अपनी पुरानी मांग को पूरा कराने की है. बिहार को विशेष दर्जा या स्पेशल पैकेज नीतीश कुमार की पुरानी मांग रही है. जाहिर है कि यह केंद्र की मदद से ही संभव है. जेडीयू की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के बैठक में इसका प्रस्ताव पारित होना इसी बात का संकेत है कि नीतीश कुमार भी केंद्र से इसकी आस लगाए बैठे हैं.

नीतीश कुमार भाजपा के साथ जतना कंफर्ट फील करते हैं, उतना आरजेडी के साथ नहीं. दो बार वे आरजेडी के साथ सरकार बना चुके हैं, लेकिन बेपटरी के कारण उन्हें वापस भाजपा के साथ जाना पड़ा. इस बार तो नीतीश ने बार-बार यह कहा है कि वे भाजपा का साथ कभी नहीं छोड़ेंगे. हालांकि इसके ठीक उलट भी वे यह कहते रहे हैं कि मर जाएंगे, लेकिन भाजपा के साथ कभी नहीं जाएंगे. उम्र के जिस पड़ाव पर नीतीश पहुंच चुके हैं, उसमें अब बहुत भाग-दौड़ की गुंजाइश तो नहीं दिखती, लेकिन उनका अतीत अधिक भरोसेमंद नहीं रहा है. इसलिए संदेह क गुंजाइश तो हमेशा बनी रहती है. भाजपा के लिए एक बात सुकून देने वाली है कि नीतीश ने जिस संजय झा को पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया है, उनके रिश्ते भाजपा से बेहतर रहे हैं.

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