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लालू के अहंकार ने दिया ‘इंडिया ब्लॉक’ को झटका.

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सिटी पोस्ट लाइव :  बिहार में लोक सभा चुनाव के नतीजे सामने आने के बाद  इंडिया गठबंधन में हार की समीक्षा की मांग तेज हो गई है. इस हार के लिए सबसे बड़ा फैक्टर नीतीश कुमार को माना जा रहा है. नीतीश कुमार ने पिछले साल जिस तरह विपक्षी एकता की बुनियाद रखी थी, उसे तहस-नहस करने के लिए  लालू प्रसाद यादव को जिम्मेवार ठराया जा रहा है.तेजस्वी यादव ने लालू की गैरमौजूदगी में 2020 में आरजेडी की जो जमीन तैयार की थी, उसे भी खिसकाने में किसी और की नहीं, बल्कि उनके पिता लालू यादव की ही भूमिका दिखाई देती है.

 

विधान परिषद के पूर्व सदस्य और राजनीतिक चिंतक प्रेम कुमार मणि कहते हैं- ‘लालू जी ने ‘इंडिया’ को धोखा दिया. बिहार में लालू यादव ने ‘इंडिया’ मोर्चे को अपनी उपस्थिति से तहस-नहस कर दिया. लालू ने कांग्रेस को तो नुकसान पहुंचाया ही, तेजस्वी का राजनीतिक भविष्य भी गड़बड़ कर दिया. अगले साल विधानसभा चुनाव है. नतीजे का अनुमान लगाना बहुत मुश्किल नहीं है. 2020 के विधानसभा चुनाव में लालू जी अनुपस्थित थे. लेकिन दूर बैठ कर भी लंगड़ी मार दी थी. कांग्रेस 50 सीटें चाह रही थी. लालू जी ने उसे 70 दे दी. एनडीए की जीत केवल 12000 वोटों से हुई. लालू जी राजनीति का साइन बोर्ड लगा कर कुछ और करते हैँ. वे तेजस्वी की ताकत भी हैँ और सबसे बड़ी कमजोरी भी.

 

बुढापे की दहलीज पर पहुंच चुके नीतीश कुमार ने भाग-दौड़ कर ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, हेमंत सोरेन, शरद यादव, उद्धव ठाकरे, अरविंद केजरीवाल जैसे नेताओं को एक मंच पर आने के लिए मना लिया. ममता बनर्जी की सलाह पर कांग्रेस की इच्छा के विरुद्ध पटना में बैठक हुई. देश के 17 विपक्षी दलों के नेता बैठक में शामिल हुए. चार्टर्ड प्लेन से पटना का एयरपोर्ट पट गया. सबको एकजुट करने में नीतीश की भूमिका की सबने सराहना की. पर, लालू ने अपना खेल कर दिया. नीतीश को भी शायद इसकी उम्मीद तब नहीं रही होगी, क्योंकि वे उस वक्त लालू यादव की पार्टी आरजेडी के साथ बिहार में सरकार चला रहे थे. भरी महफिल में लालू ने कह दिया कि राहुल गांधी दूल्हा बनेंगे और हम सभी बाराती. बात तो उन्होंने राहुल की शादी के बहाने कही, लेकिन वहां जुटे राजनीति के माहिर खिलाड़ियों ने भांप लिया. नीतीश पर क्या गुजरी होगी, यह तो अब उनकी पार्टी के सीनियर लीडर केसी त्यागी ने ही उजागर कर दिया है. त्यागी बताते हैं कि जिस इंडिया ब्लाक ने नीतीश कुमार को संयोजक बनाने में आपत्ति थी, वह अब उन्हें पीएम पद ऑफर कर रहा है. यानी लालू ने नीतीश को बिदकाने का बीजारोपण पहली बैठक में ही कर दिया था. संयोजक के सवाल पर ही नीतीश ने इंडिया ब्लाक को अलविदा भी कहा था.

 

लालू यादव की दूसरी गलती लोकसभा चुनाव के दौरान दिखी, जब अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय कर पप्पू यादव पूर्णिया की एक अदद सीट मांगने लालू दरबार में पहुंचे. लालू ने तब मना नहीं किया, लेकिन लंगड़ी मार दी. ‘बिहार में पूर्णिया से निर्दलीय उम्मीदवार पप्पू यादव की जीत राजद पर सबसे भारी है. यह तेजस्वी यादव की व्यक्तिगत हार है. तेजस्वी ने वहां पप्पू को हराने के लिए यह तक कह दिया था कि अगर आप राजद को वोट नहीं देना चाहते हैं तो जदयू को दे दीजिए, लेकिन किसी निर्दलीय को न दें. प्रकारांतर से उन्होंने जदयू उम्मीदवार संतोष कुशवाहा का समर्थन कर दिया था. फिर भी पप्पू जीत गए. यह पप्पू की बड़ी जीत और राजद के अहंकार की हार है.

 

ठीक इसी तरह की हार 2009 में नीतीश कुमार को झेलनी पड़ी थी, जब बांका से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में दिग्विजय सिंह चुनाव जीते थे. वे सिटिंग सांसद थे, लेकिन नीतीश कुमार ने राजनीतिक विद्वेष के चलते उनका टिकट काट दिया था. दिग्विजय ने इसे चुनौती के रूप में लिया और निर्दलीय खड़े हो गए थे. जब-जब नेताओं को सत्ता का अहंकार हो जाता है, जनता अहंकार खत्म कर देती है. पूर्णिया में भी ऐसा ही हुआ।‘ पप्पू को लालू यादव ने पुत्र मोह में किनारे किया था. उन्हें भय था कि यादव समाज का कोई नेता तेजस्वी के बरक्स खड़ा न हो पाए.

 

बिहार की राजनीति में जिस M-Y (मुस्लिम-यादव) समीकरण की अधिक चर्चा होती है, उसके संस्थापकों में जिन मुसलमान लीडरान की प्रमुख भूमिका रही, उनमें सिवान के सांसद शहाबुद्दीन भी थे. शहाबुद्दीन के जेल जाने के बाद आरजेडी ने उनकी पत्नी हिना शहाब पर दांव लगाना शुरू किया. तीन बार हिना ने किस्मत आजमाई, लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिल रही थी. इस बार उन्होंने फिर चुनाव लड़ने की हिम्मत जुटाई, लेकिन लालू यादव ने उन्हें मौका ही नहीं दिया. जब उन्होंने निर्दलीय चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया तो मनाने की कोशिश शुरू हुई, पर लालू परिवार ने उनसे सीधा संवाद नहीं किया. उल्टे उनके खिलाफ अवध बिहारी चौधरी को आरजेडी ने उम्मीदवार घोषित कर दिया. परिणाम क्या होगा, यह आरजेडी उम्मीदवार की घोषणा के दिन ही स्पष्ट हो गया था. सिवान में M-Y समीकरण ध्वस्त हो गया. नतीजे आए तो तीसरे ने बाजी मार ली. यानी एनडीए समर्थित जेडीयू की विजय लक्ष्मी देवी जीत गईं. हिना शहाब के खाते में 2,93,651 मत आए तो आरजेडी के अवध बिहारी चौधरी को 1,98,823 वोट मिले. विजेता विजय लक्ष्मी को 3,86,508 वोट मिले थे. अगर आरजेडी ने अगर हिना शहाब को उम्मीदवार बनाया होता या उनका समर्थन कर दिया होता तो उनकी जीत इस बार निश्चित थी.

 

लालू यादव राजनीति का साइन बोर्ड लगा कर कुछ और करते हैँ तो इसका जीता-जागता उदाहरण वीआईपी प्रमुख मुकेश सहनी हैं. राजनीति में मुकेश सहनी का राजनीति में उदय ही 2019 में हुआ. उनकी महत्वाकांक्षा के बारे में सभी जानते हैं. लोकसभा चुनाव के दौरान बिहार में बड़े जातीय आधार का दावा करने वाले और चुनावी दौरों में तेजस्वी यादव की बराबरी करने वाले मुकेश सहनी अचानक राजनीतिक परिदृश्य से ओझल हो गए हैं. मीडिया में तस्वीर और उनके बयानों से यही लगता था कि वे किसी बड़े सपने को देखने में मशगूल हैं. अंधे के हाथ बटेर के तर्ज पर उन्हें 2020 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने चार सीटें दे दीं. जीत तो सभी गए, पर उन्हें असलियत मालूम हो गई कि भाजपा की मदद और उनकी मेहनत न होती तो जीत मिलनी मुश्किल थी.

 

सहनी की ताकत किसी काम की नहीं साबित हुई. जीत का सनद पाकर विधानसभा पहुंचे चारों विधायकों ने सहनी को चित्त कर दिया. सभी भाजपा में शामिल हो गए. सौदेबाजी में नेता जी ने विधान परिषद की दो वर्षीय सदस्यता और एक अदद मंत्री पद की मांग की तो नीतीश कुमार कृपा से दोनों ओहदे उन्हें मिल गए। बाद में उनकी ताकत का अंदाजा लगते ही नीतीश कुमार ने दोनों से मुक्त भी कर दिया. उसी सहनी को लालू ने इस बार सीपीआई (एमएल) के बराबर भाव दिया. तीन सीटें वीआईपी को भी मिलीं. सीपीआई (एमएल) के दो उम्मीदवार जीत गए, जबकि सहनी के तीनों प्रत्याशी धराशायी हो गए.

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