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नीतीश कुमार का मिशन अपोजीशन कितना सफल?

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सिटी पोस्ट लाइव : पटना में नीतीश कुमार के नेत्रित्व में हुई विपक्षी एकता को भले  बीजेपी हवा में उड़ाने की बात कर रही हो लेकिन सच्चाई यहीं है कि नीतीश कुमार ने जिस मिशन की शुरुवात की है उसे पहले झटके में ही एक मुकाम तक पहुंचा दिया ही. इस बैठक का बड़ा ही  राजनीतिक रूप से सकारात्मकता असर सामने आया है.इसे ममता बनर्जी की आक्रामकता और तमाम वाम दलों के सकारात्मक बयान से समझा जा सकता है. बीजेपी के लिए भी यह कम चुनौती नहीं की जम्मू कश्मीर की राजनीति के दो परस्पर विरोधी दल नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी एक मंच से बीजेपी के विरुद्ध एकसाथ खड़े नजर आ रहे हैं.

पटना में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पहल पर  15 राजनीतिक दलों की बैठक हुई. ये नरेंद्र मोदी की सरकार के विरुद्ध अब तक की सबसे बड़ी गोलबंदी है. ऐसा इसलिए क्योंकि इस बैठक में बिहार के सीएम नीतीश के अलावा लालू यादव, तेजस्वी यादव, राहुल गांधी, मल्लिकार्जुन खरगे, हेमंत सोरेन शामिल हुए. वाम नेता डी राजा, सीताराम येचुरी, दीपांकर भट्टाचार्य, अखिलेश यादव, एमके स्टालिन, ममता बनर्जी भी पहुंचे. भगवंत मान, अरविंद केजरीवाल, शरद पवार, फारुख अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती और उद्धव ठाकरे जैसे कद्दावर नेताओं ने भी इसमें शिरकत की.

पटना में हुई विपक्षी एकता बैठक की महत्ता इसलिए भी बढ़ गई कि तमाम दलों ने ‘भाजपा हटाओ’ मुहिम को गंभीरता से लिया. सभी दलों ने अपने-अपने शीर्ष नेताओं को इस बैठक के लिए भेजा. आज की तारीख में बीजेपी के लिए इन कद्दावर नेताओं का एक मंच पर आना किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है.पटना की बैठक के बाद भी  सीएम नीतीश की चुनौतियाँ कम नहीं हुई हैं. अगर नीतीश कुमार संयोजक बनते हैं तो आने वाले समय में गठबंधन से जुड़े सभी मुद्दों को सुलझाने का जिम्मा उन पर होगा. लोकसभा सीटों का बंटवारा करने के लिए फार्मूला तय करना, कांग्रेस से आमने-सामने की लड़ाई लड़ने वाली ममता बनर्जी की टीएमसी, अरविंद केजरीवाल की AAP, शरद पवार की एनसीपी आदि से बेहतर तालमेल बिठाने की नीति तय करना उनकी अहम् जिम्मेवारी होगी.साथ ही मोदी सरकार और बीजेपी को कैसे और किन मुद्दों पर घेरा जाए इसे लेकर भी नीतीश कुमार को अहम भूमिका निभानी होगी.

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को लेकर जो तरह-तरह की बातें उछाली जा रहीं उसके बहुत कुछ मायने नहीं हैं. ऐसा इसलिए भी कि केजरीवाल जिस अध्यादेश के बारे में कांग्रेस से सहमति चाह रहे हैं वह मसला सदन के भीतर का है. यह बात बीजेपी भी समझती है कि कांग्रेस निश्चित रूप से उस अध्यादेश का विरोध करेगी. अगर सचमुच AAP अध्यादेश का बहाना कर अलग होकर अलग चुनाव लड़ना चाहती है तो भी बाकी बचे 14 बड़े दलों से भी बीजेपी को बड़ी चुनौती मिलने जा रही है.

साल 2019 के लोकसभा चुनाव में  बीजेपी ने महज 43 फीसदी वोट पाकर लोकसभा की 300 से ज्यादा सीटों पर कब्जा जमा लिया. वहीं 57 प्रतिशत वोट उसके खिलाफ पड़े थे. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इसी वोट बैंक यानी 57 प्रतिशत पर निशाना साधा है. विपक्षी एकता की इस मुहिम को ‘भ्रष्टाचार में डूबी पार्टियों का ठगबंधन’ करार देकर ये मुगालता पालना कि विपक्ष एकजुट हो ही नहीं सकता बीजेपी के लिए महंगा सौदा साबित हो सकता है.बीजेपी भी शायद इस चुनौती को समझती है तभी तो  बीजेपी के मुख्य रणनीतिकार अमित शाह का चुनावी टारगेट 400 से घटकर 300 सीट पर आ गया है.

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