सिटी पोस्ट लाइव : विपक्षी एकता की दूसरी बैठक अब 17 और 18 जुलाई को बेंगलुरु में होना है.इस बैठक में बीजेपी को हारने की फाइनल खाका खींचा जाएगा.नीतीश का फार्मूला है कि हर सीट पर बीजेपी और उसके सहयोगी दलों के प्रत्याशी के खिलाफ विपक्ष का एक उम्मीदवार हो. अगर पूरा विपक्ष इस पर राजी हो गया तो बीजेपी के लिए मुश्किलें खड़ी हो जाएंगी.2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया था. इससे नाराज नीतीश कुमार एनडीए से अलग हो गए थे, लेकिन वह आरजेडी के साथ नहीं गए.आरजेडी और कांग्रेस एक साथ मिलकर लड़े थे, जबकि जेडीयू अलग थी. वर्तमान में सिर्फ बदलाव यह है कि एनडीए में नीतीश नहीं है, उनके साथ जीतन राम मांझी आ गए हैं. बाकी एनडीए में बिहार के लगभग सभी साथी हैं या शामिल होंगे.दूसरी तरफ के गठबंधन में नीतीश होंगे.
बिहार में भाजपा के साथ रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी और उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा थी. इस गठबंधन को 40 में से 31 सीटें मिली थीं, जबकि वोट शेयरिंग 39.5 फीसदी थी. कांग्रेस 12 सीटों पर लड़ी थी और उसे 2 पर जीत मिली थी.आरजेडी को 4 सांसद जीते थे, जबकि वह 27 सीटों पर चुनाव लड़ी थी. नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू 38 सीटों पर प्रत्याशी उतारे थे और उसके सिर्फ 2 प्रत्याशी ही जीते थे.2019 में लोकसभा चुनाव में नीतीश भाजपा के साथ आ गये और एनडीए ने 40 में से 39 सीटें जीत ली. वोट प्रतिशत एनडीए का बढ़कर 54.4 फीसदी हो गया जबकि महागठबंधन का 23.6 फीसदी.यानी एनडीए का 2014 से वोट 14.9 फीसदी बढ़ गया . यह उछाल नीतीश कुमार के साथ आने की वजह से मिला था.
2014 में सीटों के मामले में भाजपा के जीतने की मुख्य वजह विपक्ष का एकजुट नहीं होना था. यही वजह थी कि एनडीए को 31 सीटें मिली थीं. लेकिन वर्तमान हालत में अगर आरजेडी, जेडीयू, कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियां अपना सिर्फ एक उम्मीदवार उतारती हैं तो बीजेपी के लिए मुश्किल होगा. इसकी वजह इन पार्टियों का कुल वोट शेयरिंग है.2014 के चुनाव में आरजेडी को 20.5%, कांग्रेस- 8.6%, लेफ्ट पार्टियां- 2.8 और जेडीयू को 16% वोट मिले थे. इनका कुल वोट- 47.9% होता है. वहीं भाजपा, लोजपा और उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी का कुल वोट शेयर 39.5% था. यानी संयुक्त विपक्ष के मुकाबले 8.4 फीसदी कम वोट.नीतीश कुमार बिहार में 16% वोट की गारंटी हैं. वह जब भी अकेले लड़े तो भी यह वोट बैंक उनके साथ रहा है. अगर नीतीश कुमार अपने वोट बैंक का आधा भी बन रहे नए गठबंधन को शिफ्ट करा देते हैं तो भाजपा के लिए बिहार में काफी मुश्किल हो जाएगी.
सीमांचल में एक लोकसभा सीट अररिया है. यहां 2014 लोकसभा चुनाव में आरजेडी के उम्मीदवार ने जीत दर्ज की थी. उसे 41.8 फीसदी वोट मिले थे, जबकि भाजपा उम्मीदवार को 26.8 और जेडीयू को 22.4% वोट मिले थे. लेकिन पांच साल बाद 2019 में नीतीश जैसे ही बीजेपी के साथ मिलकर लड़ते हैं, पूरा परिदृश्य ही बदल गया. यहां से भाजपा उम्मीदवार प्रदीप कुमार सिंह को 52.9 फीसदी वोट मिले जबकि आरजेडी को 42.1 फीसदी.सुपौल लोकसभा सीट पर 2014 में महागठबंधन में शामिल कांग्रेस ने जीत दर्ज की थी. उसे 34.3 फीसदी वोट मिले थे, जबकि बीजेपी को 25.7 और जेडीयू को 28.2 फीसदी वोट मिले थे. 2019 के चुनाव पर जब भाजपा-जेडीयू साथ आए तो यह सीट जेडीयू के खाते में आई. एनडीए ने यह सीट बंपर वोट से जीती. जेडीयू को 54.2 फीसदी वोट मिले, वहीं कांग्रेस को 30 फीसदी.अब नीतीश की जेडीयू, आरजेडी, कांग्रेस, लेफ्ट पार्टियां साथ-साथ हैं. अगर संयुक्त उम्मीदवार भाजपा के खिलाफ उतरेगा तो स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है.
- महागठबंधन की पार्टियों को अलग करके ही बीजेपी महागठबंधन का मुकाबला कर सकती है. उसने महागठबंधन के जीतन राम मांझी की पार्टी हम को उससे अलग करके अपने साथ कर लिया है. जेडीयू से अलग हुए आरसीपी सिंह को अपने साथ कर लिया. .आरजेडी और जेडीयू में हर मुमकिन दरार डालने की कोशिश.
- छोटे दलों को साथ रखने की रणनीति: छोटे दलों की खासियत यह होती है कि उनका वोट फिक्स होता है और वे किसी न किसी जाति या समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं. उनकी लोकसभा में सीट की डिमांड कम रहती है और वोट शिफ्ट कराने में माहिर होते हैं. भाजपा ने महादलित वोट के लिए महागठबंधन से अलग हुए हम पार्टी को अपने साथ मिला लिया है.
- वहीं, पासवान जाति के वोट के लिए चिराग पासवान को अपने साथ लाने की तैयारी में जुटी है. वीआईपी के मुकेश सहनी, राष्ट्रीय लोक जनता दल के उपेंद्र कुशवाहा से बातचीत चल रही है.उपेन्द्र कुशवाहा उसके साथ आ चुके हैं. ईन छोटे दलों के साथ आ जाने से ओबीसी पर बीजेपी की पकड़ मजबूत होगी.
- महागठबंधन की जाति अधारित राजनीति को कमजोर करना: आरजेडी से लेकर जेडीयू तक ने जातीय जनगणना को बड़ा मुद्दा बनाया है. ओबीसी वोटर्स को भुनाने के लिए दोनों दलों ने खूब बयानबाजी की है. बीजेपी को ओबीसी का विरोधी चेहरा घोषित करने भी कोशिश की है..इस छवि को तोड़ने के लिए भाजपा को उपेंद्र कुशवाहा, मुकेश सहनी और आरसीपी सिंह काफी हद तक मददगार साबित होंगे.
यूपी में 2014 का लोकसभा चुनाव काफी दिलचस्प रहा. यूपी की 80 लोकसभा सीटों में भाजपा ने 71 सीटों पर जीत दर्ज की. फैक्टर मोदी था, जिसमें जातीय समीकरण को भी तोड़ा गया. मोदी ने उत्तर प्रदेश की हर रैली में कहा था, ‘सबका साफ करो’ स से सपा, ब से बसपा और क से कांग्रेस…मोदी लहर के साथ यूपी में जातीय राजनीति का फॉर्मूला भी टूटा. यूपी की तत्कालीन सत्ताधारी पार्टी सपा महज 5 सीटों में सिमट गई. कांग्रेस और अपना दल दो दो सीट निकाल पाई. बसपा के हाथ तो एक भी सीट नहीं आई.
इससे सबक लेते हुए बसपा सुप्रीमो मायवाती और अखिलेश यादव ने गठबंधन बनाया. हलांकि इसमें कांग्रेस नहीं थी. दोनों के एक साथ आने के बाद बीजेपी डर गई थी. फिर उसने प्लान बनाया. 2019 गठबंधन के बाद भी सपा और बसपा का जादू नहीं चला.बसपा तो 0 से 10 सीट पहुंची, लेकिन सपा 5 सीटों पर ही सिमटी रही. बीजेपी ने जातीय समीकरण को ध्यान में रखकर कैंडीडेट्स उतारे और हिंदुत्व के साथ मोदी योगी लहर को कैश किया. छोटी पार्टियां को साथ लिया.
विपक्षी एकता से सबसे ज्यादा इफेक्ट बिहार में दिखेगा, क्योंकि भाजपा को आरजेडी, जेडीयू, कांग्रेस और लेफ्ट की तीन पार्टियों के वोटबैंक से एकसाथ निपटना होगा..यही असली डर बीजेपी को है.नया गठबंधन बनने पर पश्चिम बंगाल में भी कुछ ऐसी ही स्थिति होगी. वजह-कांग्रेस, ममता की पार्टी टीएमसी और लेफ्ट पार्टियों के खिलाफ अकेले लड़ना होगा.2019 के लोकसभा चुनाव में यहां टीमएसी को 43.7%, सीपीआई माले को 6.5%, कांग्रेस को 5.7% वोट मिले थे, जो कुल 55.9 फीसदी होते हैं. वहीं बीजेपी को 40.6 फीसदी वोट मिले थे. यानी विपक्ष को 15 फीसदी ज्यादा वोट मिले थे.टीएमसी का वोटबैंक बीजेपी से सिर्फ 3.1 फीसदी ज्यादा है. वेस्ट बंगाल में बीजेपी तेजी से आगे बढ़ रही है.यह बात ममता बनर्जी को भी पता है इसलिए कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियों से तकरार के बाद भी विपक्षी एकता में शामिल होने के लिए सबसे पहले हामी भरी थीं.
महाराष्ट्र में बीजेपी ने पहले ही ऐसे किसी गठबंधन की हवा पहले ही निकाल चुकी है. वहां पर शरद यादव की पार्टी एनसीपी और उद्धव ठाकरे की पार्टी शिवसेना को तोड़ चुकी है.यूपी में मायावती इस गठबंधन में शामिल नहीं हैं, इसकी वजह से वहां बीजेपी को ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी.23 जून को पटना में हुई विपक्षी एकता की मीटिंग में जिस तरह से अरविंद केजरीवाल का बर्ताव दिखा, इससे साबित होता है है कि वह इस मुहिम शामिल नहीं होंगे. यानी यहां दिल्ली, पंजाब में प्रभावी विपक्ष पार्टियों का कोई गठबंधन नहीं बन पा रहा है. दूसरी ओर शिरोमणी अकाली दल भाजपा के नजदीक जा रही है. इससे बीजेपी को यहां टेंशन नहीं है.तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन दक्षिण भारत से वे क्षेत्रीय नेता हैं, जो विपक्षी एकता की बैठक में शामिल हुए थे. तमिलनाडु में वैसे ही स्टालिन की पार्टी डीएमके की लड़ाई कांग्रेस और एआईएडीएमके से है. बीजेपी का वहां कोई बड़ा जनाधार नहीं है.
नीतीश का फॉर्मूला क्रिमिनल, करप्शन और सांप्रदायिक मामलों में कभी समझौते का नहीं रहा है .वह अपनी छवि कानून राज वाले नेता के रूप में बनाए हैं. बेदाग छवि रही है. दूसरा- 2015 के विधानसभा में विपक्ष का महागठबंधन भाजपा को कैसे बैकफुट पर भेज दिया था. इसका मैसेज भी रहेगा. विपक्षी एकता का फोकस कैंडीडेट्स को लेकर है. एक कैंडीडेट्स वाले प्लान में वह कास्ट फैक्टर को भी साथ लेकर चलेगी. अलग-अलग राज्यों में अलग अलग जातियों के नेताओं को आगे लाकर जीत की कोशिश होगी. हालांकि भाजपा अभी से ऐसे फैक्टर पर काम कर रही है.
नीतीश कुमार के लिए क्रिटिकल समय चल रहा है. उनके लिए तो यह समय 2013 और 2017 से भी खराब है. तेजस्वी के चार्जशीट के बाद से ऐसा लगता है कि नीतीश कुमार अब काफी हद तक समझौतावादी हो गए हैं.इसका पूरे देश में गलत संदेश है. विपक्षी एकता के नेता में पैन इंडिया इमेज भी नहीं है. 1977 में जय प्रकाश नरायण और 1989 में वीपी सिंह ने जो इमेज भ्रष्टाचार के विरोध में बनाया था, वह विपक्षी एकता में नहीं है.विपक्षी दलों को एक साथ जोड़ पाने में यह सबसे बड़ी बाधा होगी. जेपी मूवमेंट में एक आवाज पर विधायकों ने इस्तीफा दे दिया था. अब ऐसी स्थिति नहीं है.
वीपी सिंह ने जो जनमोर्चा बनाया था उसमें कश्मीर से लेकर कन्या कुमारी तक के नेता शामिल हुए. नीतीश कुमार में इतनी क्षमता अभी नहीं है. विपक्ष का बस एक ही फॉर्मूला है कि बीजेपी को हटाना है, जबकि भाजपा बड़ा स्ट्रक्चर बना लिया है.हिंदुत्व अग्रेसिव मोड हर जगह चल रहा है. कॉमन वोटर्स कल्पना में जीता है, भाजपा ऐसे वोटरों को लुभाने के लिए हर स्तर पर काम करती है. नीतीश की गाड़ी भी लालू खींच सकते हैं, यह भी एक बाधा होगी.विपक्षी एकता के लिए सबसे बड़ी बाधा सीटों का तालमेल है. अगर सीटों का तालमेल हो जाता है तो लड़ाई आसान होगी, नहीं तो विपक्षी एकता की लड़ाई आपसी हो जाएगी. केजवरीवाल और ममता भी एक बड़ी बाधा हैं.
कांग्रेस चाहेगी कि वह ड्राइविंग सीट संभाले, उसके खाते में अधिक से अधिक सीटें आएं, क्योंकि विपक्षी एकता में कांग्रेस अकेली राष्ट्रीय पार्टी है. विपक्षी एकता में शामिल अधिकतर दलों के सुप्रीमों पर केस है. सिर्फ नीतीश कुमार ही ऐसे हैं जिनपर कोई केस नहीं है, लेकिन बिहार के बाहर वह शून्य हैं.यूपी में काफी कोशिश के बाद भी वह पैर नहीं जमा पाए. दिल्ली और मणिपुर के साथ अन्य कई राज्यों में भी वह फेल हो चुके हैं. बस बेदाग छवि के कारण नीतीश थोड़ा फाइट कर पाएंगे. हालांकि चुनौती ये भी है कि बाकी दल तो नीतीश को नेता मान लेंगे, लेकिन कांग्रेस नीतीश को कितने हद तक नेता मान पाएगी.
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