सोशल इंजीनियरिंग में सबसे आगे है BJP.
नीतीश के बीजेपी के साथ आने से बिगड़ गया है विपक्ष का गणित, समझिये BJP का राजनीतिक खेला.
सिटी पोस्ट लाइव :बिहार में 2024 के लोकसभा चुनाव का सियासी पारा चढ़ना शुरू हो गया है.बीजेपी मोदी की गांरटी वाले नारे और विपक्ष का ‘संविधान ख़तरे में है’ के नारा के सहारे मुकाबले की तैयारी में जुटा है.बिहार की 40 लोकसभा सीटें केंद्र में सरकार बनाने के लिए हमेशा अहम रहती हैं. 2019 में एनडीए को यहाँ 39 सीटें मिली थीं. इस बार क्या होगा सबके जेहन में यहीं सवाल है.इंडिया अलांयस हो या एनडीए –कोई गुंजाइश नहीं छोड़ना चाहता.क्या एनडीए बिहार में इसबार भी अपने पिछले परफॉरमेंस को दुहरा पायेगा?
फिर नीतीश कुमार विपक्ष को छोड़कर एक बार फिर से बीजेपी का दामन थाम चुके हैं. ईबीसी, महादलित, महिलाओं आदि के हिस्सों को जोड़ लें तो माना जाता है कि नीतीश कुमार के पक्ष में 12-13 प्रतिशत वोट हैं. नीतीश को इंडिया अलायंस से अपने साथ आने को मजबूर कर देना बीजेपी की एक बड़ी कूटनीतिक सफलता मानी जा रही है. अगर नीतीश इंडिया गठबंधन में होते तो बिहार मे बीजेपी के लिए विपक्ष को 25 से ज़्यादा सीटें मिल सकती थीं. इससे विपक्ष को राष्ट्रीय स्तर पर फ़ायदा होता.
नीतीश के साथ आने के बाद गठबंधन के अलावा बीजेपी भी चुनौतियां बढ़ीं. अब सीट बटवारे में पेंच फंसा हुआ है..एनडीए में बीजेपी के अलावा चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी रामविलास (एलजेपीआर), पशुपति पारस की राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी (आरएलजेपी), उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक मोर्चा के अलावा पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी भी हैं.लेकिन बार बार पल्टी मारने की वजह से नीतीश कुमार की छवि खराब हुई है.बीजेपी के नेता बीजेपी की सभी सीटें जितने का दावा तो कर रहे हैं लेकिन JDU की जीत को लेकर वो सशंकित नजर आ रहे हैं.. BJP के नेता और उम्मीदवार सभी सीटों पर तैयारी कर रहे थे. नीतीश जी के आने से बाद से निश्चित तौर से उनके सपोर्ट बेस में उत्साह कम हो गया है. JDU के प्रति जो आकर्षण होना चाहिए था, वो दिखाई नहीं दे रहा है.एक सोच है कि नीतीश कुमार की धूमिल छवि का असर एनडीए के कुल वोट प्रतिशत पर भी पड़ सकता है, ऐसे वक़्त में जब नौकरी के वायदे पर आरेजेडी का वोटर बेस उत्साहित है.
जाति जनगणना ने विपक्ष को बीजेपी के ख़िलाफ़ महत्वपूर्ण मुद्दा दे दिया था, और कहा गया कि विपक्ष बीजेपी के धर्म की राजनीति का मुक़ाबला जाति से करना चाहती है.ओबीसी के एक बड़े तबक़े के भाजपा के पक्ष में वोट करने के कारण वो न इसका खुलकर विरोध कर पा रही थी, न इसका समर्थन. कई लोग कहने लगे कि इस जनगणना से भाजपा के परंपरागत हिंदू वोट के बिखरने का ख़तरा है.राहुल गांधी अपनी रैलियों में जाति जनगणना पर बीजेपी की तीखी आलोचना करते रहे हैं. जन सुराज के संयोजक प्रशांत किशोर के अनुसार जो लोग जाति जनगणना के नाम पर इतना ढिंढोरा पीटे वही नीतीश कुमार सबसे पहले इंडिया गठबंधन को छोड़कर भाग गए. और उस मुद्दे को राहुल गांधी को चिपका दिया.””राहुल गांधी उसे लेकर घूमे जा रहे हैं. पूरे देश में और उसका नुक़सान हो रहा है. अब छवि क्या बन रही है – मोदी बात कर रहे हैं पांच ट्रिलियन अर्थव्यवस्था की, देश को आगे बढ़ाने की, प्रोग्रेसिव सोच की, बड़े निर्णयों की और राहुल गांधी क्या बात कर रहे हैं? जाति की.. सही और ग़लत, वो (मोदी) भविष्य की ओर देखने वाले नज़र आ रहे हैं, आप (राहुल) पीछे देखने वाले.”
जाति जनगणना का मुद्दा बीजेपी के लिए कोई बड़ी चुनौती नहीं बनने जा रहा है .कांग्रेस को कोई मुद्दा नहीं मिल रहा है. उनको लगता है कि बीजेपी धर्म की बात करेगी तो हम जाति की बात करेंगे. लेकिन गवर्नेंस में आप इनसे क्या बेहतर ऑफ़र करेंगे, वो नहीं बोल पा रहे हैं. बीजेपी की ग़लतियां गिना रहे हैं लेकिन ख़ुद क्या ऑफ़र करेंगे ये नहीं बता रहे हैं.साल 2020 के विधानसभा चुनाव में तेजस्वी यादव ने बेरोज़गारी को बड़ा मुद्दा बनाया था और सत्ता में आने पर 10 लाख नौकरियां देने का वायदा किया था.जानकार बताते हैं कि ये पहली बार था कि बिहार में किसी नेता ने इस तरह नौकरियों को चुनाव के केंद्र में रखा था. हालांकि इसे लेकर एक तर्क ये भी दिया जा रहा है कि जब वोटरों को पता है कि राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय जनता दल इसे लेकर अभी कुछ ख़ास नहीं कर सकती तो लोग लोकसभा चुनाव में अपना वोट क्यों बर्बाद करेंगे.
ब्रिटिश शासन के दौरान संसाधनों के अन्यायपूर्ण वितरण को भी बिहार के पिछड़ेपन के लिए ज़िम्मेदार बताया गया है. एक सोच ये भी है कि जब 1990 के आर्थिक सुधारों के बाद देश के कई हिस्सों में आईटी और बीपीओ सेक्टर हालात बदल रहे थे, बिहार बदलते वक़्त का फ़ायदा नहीं उठा पाया और वो कृषि के वर्चस्व वाले गुज़रे वक़्त के पैदावार के तरीक़ों से नहीं निकल पाया.ताज़ा आंकड़े बताते हैं कि बिहार में बेरोज़गारी दर देश में सबसे ज़्यादा है.जन विश्वास यात्रा के दौरान तेजस्वी यादव 17 महीनों के कार्यकाल में पांच लाख लोगों को रोज़गार देने का दावा करते रहे .
जानकारों के मुताबिक़ ये बिहार में समाजवाद का लंबा इतिहास है, जिसने बीजेपी को अपने बल पर सत्ता से अभी तक दूर कर रखा है.जेपी आंदोलन से निकले बिहार के नेताओं का पिछले तीन दशकों से बिहार की राजनीति में बोलबाला रहा है.समाजवादी नेताओं की लंबी सूची में लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार का नाम भी जुड़ा. चुनाव की घंटी बजने वाली है और नीतीश कुमार विदेश चले गए हैं.
सोशल इंजीनियरिंग की बिसात बिछाने में बीजेपी कांग्रेस और RJD से आगे है. जब नीतीश कुमार ने शपथ ग्रहण किया, तो उनके चार मंत्रियों ने शपथ ली. दो ख़ुद वो और श्रवण कुमार उनकी जाति से, दो अगड़ी जाति और एक यादव. ये अगडी और यादव जातियां नीतीश कुमार का वोट बैंक नहीं हैं. बीजेपी ने अपना तीन मंत्री बनाया. एक ओबीसी, एक ईबीसी, एक अगड़ी जाति. राज्यसभा में जहाँ बीजेपी ने भीम सिंह (ईबीसी) और धर्मशीला गुप्ता (ओबीसी) को भेजा, आरजेडी ने मनोज झा और संजय यादव का चयन किया. कांग्रेस ने अखिलेश प्रसाद सिंह को जबकि जदयू ने नीतीश कुमार के निकट सहयोगी संजय झा को राज्यसभा भेजा.
आरजेडी , कांग्रेस और JDU कौन सी राजनीति कर रही है? बीजेपी सबको समेटने के चक्कर में है. लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार भी केंद्र में मंत्री रहे. कभी उन्होंने कैबिनेट में आवाज़ नहीं उठाई कि कर्पूरी ठाकुर जी को (भारत रत्न) दिया जाए.लेकिन बीजेपी ने उन्हें भारत रत्न देकर अति-पिछड़ों के बीच एक बड़ा संदेश दे दिया .बीजेपी को भले दक्षिणपंथी कहा जाता है लेकिन जो सोशल इंजीनियरिंग वो कर रही है ,कोई दल या नेता नहीं कर रहा.BJP ने राष्ट्रपति के दो उम्मीदवार बनाए. एक दलित तो दूसरा आदिवासी. राजस्थान में ब्राह्मण (मुख्यमंत्री) है, गुजरात में कुर्मी है, मध्य प्रदेश में यादव है, छत्तीसगढ़ में एक आदिवासी.
आंदोलनों की ज़मीन रहा बिहार राजनीति की तासीर को हमेशा गर्म ही रखता है. ज़मीन पर हो रही आम लोगों की हलचल राजनेताओं को अपने तरकश के हर तीर को आज़माने को मजबूर कर ही देगी. लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है कि निशाना फिर भी सधेगा या नहीं?बिहार को ऐसे राज्य के तौर पर देखा गया जहाँ बीजेपी को विपक्षी गठबंधन से कड़ी चुनौती मिल सकती थी. नीतीश का इंडिया ब्लॉक में होना उसे मज़बूती दे रहा था.सामाजिक जोड़-तोड़ की राजनीति में माहिर नीतीश कुमार के जाति जनगणना के नतीजे घोषित करने को एक मास्टरस्ट्रोक बताया जा रहा था, जिससे उनकी चर्चा राष्ट्रीय तौर पर हुई.ओबीसी वोट बैंक का एक बड़े हिस्से को अपनी ओर खींचने वाली भाजपा ऐसा लगा कि बैकफ़ुट पर दिखी.पश्चिम और उत्तर भारत के हिंदी भाषी राज्यों जैसे हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल, दिल्ली, उत्तर देश, राजस्थान, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश आदि में एनडीए पहले ही सियासी रूप से शीर्ष पर है जबकि दक्षिण में अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद लिए बीजेपी के लिए बिहार में अच्छे प्रदर्शन का दोहराना ज़रूरी था.
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