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प्रशांत किशोर के लिए आसान नहीं है बिहार की लड़ाई.

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 बिहार में तीसरा मोर्चा खोलना नहीं होगा आसान, की राह में होगी बड़ी चुनौती

सिटी पोस्ट लाइव : बड़े बड़े राजनीतिक दलों के लिए बतौर एक सफल चुनावी रणनीतिकार के रूप में काम कर चुके प्रशांत किशोर देश की राजनीति में एक बड़ा प्रयोग करने जा रहे हैं.2 अक्टूबर से उनका जन-सुराज अभियान एक राजनीतिक दल का रूप ले लेगा. 2025 में राज्य में एक नई सरकार बनाने के सपने को साकार करने के लिए किशोर ने जातीय समीकरण को साधने के लिए अद्भुत पहल की है. उन्होंने कहा कि जन सुराज के प्रदेश अध्यक्ष का कार्यकाल एक वर्ष का होगा. बारी-बारी से सभी सामाजिक समूहों यानी दलित, मुस्लिम, अति-पिछड़ा, पिछड़ा और सवर्ण को प्रदेश का नेतृत्व सौंपा जायेगा.

प्रशांत किशोर का इस किस्म का राजनीतिक प्रयोग बिहार में कितना सफल हो पायेगा, ये कहना फिलहाल मुश्किल है. 1990 में विधान सभा चुनाव में कांग्रेस की पराजय के पश्चात् सत्ता उन लोगों के हाथों में आ गयी, जिन्हें आर्थिक विकास में रुचि नहीं थी. कांग्रेस की हार का निहितार्थ जनता दल के नेताओं ने अपने समर्थकों को इस तरह समझाया कि सामाजिक प्रतिशोध बिहार की नियति बन गयी. तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह को जब अपनी पार्टी में चुनौतियों का सामना करना पड़ा तो उन्होंने अपने पद को सुरक्षित रखने के लिए मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने की घोषणा कर दी. तब समस्त उत्तर भारत के लोग इस प्रकार के गैर-जिम्मेदाराना फैसले की अग्नि में झुलसे थे. बिहार के पिछड़े वर्ग के नेताओं के लिए यह निर्णय वरदान साबित हुआ. उन्होंने सामाजिक ढांचे को राजनीतिक प्रक्रिया का स्थायी आधार बना दिया.

बिहार के चुनाव  में जातीय समीकरण की अहम् भूमिका रही है. हर जाति का यहाँ नेता है.यहाँ के स्थापित राजनीतिक दल जाति से ही ताल्लुकात रखते हैं.यादवों के नेता लालू यादव हैं.कुर्मी के नेता नीतीश कुमार, कुशवाहा के नेता उपेन्द्र कुशवाहा, मुशाहार के नेता जीतन राम मांझी और पासवानों के नेता चिराग पासवान हैं.सामाजिक सुधार के नाम पर गठित संगठन और राजनीतिक दलों ने बिहार की राजनीति को काफी प्रभावित किया है. राजनीति के मौजूदा दौर में व्याप्त जातीय चेतना की जड़ें इन संगठनों में ढूंढी जा सकती है. दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि बंगाल के सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलनों का बिहार के लोगों पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा. विदेह, वैशाली, अंग व मगध का गौरव-गान अब अप्रासंगिक है. जाति “बिहारी राजनीति” का सच है. 1967 के विधान सभा चुनाव में कांग्रेस की असफलता के कई कारण हो सकते हैं. लेकिन बिहार में चुनाव परिणामों के पश्चात् संविद सरकारों के गठन की प्रक्रिया ने राज्य के नेताओं की जातीय कुंठा को ही उजागर किया.

संविद सरकारों के गठन ने विभिन्न जातीय समूहों को राजनीतिक सौदेबाजी का अवसर प्रदान करके राजनीतिक आदर्शों की उपयोगिता पर ही प्रश्न-चिह्न लगा दिया. धुर-विरोधी दल सीपीआई और जनसंघ के एक साथ संविद सरकार में शामिल होने की घटना से राजनीतिक विश्लेषक भी चकित हुए थे. बिहार में तीन दशक पहले कांग्रेस विरोध का मतलब ब्राह्मणों के सामाजिक-राजनीतिक वर्चस्व का विरोध माना जाता था. किंतु भाजपा की बढ़त ने कांग्रेस को उन राजनीतिक दलों से समझौते करने के लिए विवश कर दिया जो कांग्रेस की पराजय से ही सत्ता का सुख ले रहे हैं. मंडल आयोग के विवाद के कारण राज्य की राजनीति का व्याकरण पूरी तरह बदल गया.

हिंदुत्व को जीवन पद्धति का अभिन्न अंग बताने वाली बीजेपी बिहार में चुनाव जीतने के लिए सामाजिक अभियंत्रण पर ही भरोसा करती है. पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश में भाजपा अपने दम पर सरकार गठित करती है, क्योंकि वहां राम के नाम पर वोट मिल जाता है. हालांकि यह बात अलग है कि वहां भी भाजपा छोटे-छोटे राजनीतिक दलों से गठबंधन विभिन्न जातीय समूहों के वोटों को संचित करने के लिए ही करती है. राजस्थान और मध्य प्रदेश में दो ही राजनीतिक दल – कांग्रेस व भाजपा –  ही सत्ता के दावेदार हैं.

उत्तर प्रदेश में भी फिलहाल समाजवादी पार्टी ही भाजपा के विरुद्ध ज्यादा सशक्त दिखाई पड़ती है, अन्य दल हाशिए पर खड़े हैं. इस मामले में बिहार की स्थिति कुछ अलग है. यहां सामाजिक न्याय की राजनीति के वारिस दो राजनीतिक दल हैं-राजद व जदयू. ये दोनों ही दल समाज में मौजूद आर्थिक विषमता को खत्म करने के लिए प्रतिबद्धता व्यक्त करते हैं.

जद(यू) के नेता नीतीश कुमार अवसर के अनुकूल निर्णय लेने के लिए जाने जाते हैं. अपनी सुविधा के अनुसार गठबंधन बदलने का कीर्तिमान इन्होंने स्थापित किया है. राज्य की सत्ता पंद्रह वर्षों तक लालू यादव और राबड़ी देवी के हाथों में रही. तब गांवों व कस्बों ने जाति की चाशनी में भींगे हुए समाजवाद का स्वाद चखा था. लालू की कार्यशैली से नाखुश नीतीश कुमार को जॉर्ज फर्नांडीज का संरक्षण मिला और फिर बिहार की राजनीति में सुशासन की चर्चा होने लगी.

अटल बिहारी वाजपेयी व लालकृष्ण आडवाणी की भाजपा ने नीतीश कुमार के कामकाज में कभी दखल नहीं दिया. लेकिन उन “स्वर्णिम दिनों” के गुजर जाने के पश्चात् नीतीश कुमार का भाजपा से संबंध सहज नहीं रहा. इसलिए उन्हें विकल्प ढूंढना अच्छा लगने लगा. उनकी उपेक्षा न तो तेजस्वी यादव कर पाते हैं और न ही हिंदुत्व के पैरोकार. वे कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व का विश्वास हासिल करना भी जानते हैं.

जद(यू) लोकसभा चुनाव में अपने प्रदर्शन से उत्साहित है और केंद्र सरकार की स्थिरता के लिए भाजपा की जरूरत बन गयी है. प्रशांत किशोर राज्य की राजनीति में “जन सुराज” को किस तरह लोकप्रिय बना पाएंगे, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि वोटर अपने दायरे से बाहर निकल पाते हैं या नहीं. राज्य अभी भी निर्रक्षरता, अंधविश्वास, सामाजिक कुरीतियों एवं गरीबी से मुक्त नहीं हुआ. भूमि-विवाद और आपराधिक घटनाओं के कारण कानून-व्यवस्था पर सवाल उठ रहे हैं. ऐसे में प्रशांत किशोर की परिवर्तनकामी पहल का भविष्य देखना एक रोचक अनुभव होगा.

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