सिटी पोस्ट लाइव : बाहुबली नेता आनंद मोहन की रिहाई का ऐलान हो गया है. आनंद मोहन जेल से बाहर आ सकें, इसके लिए सरकार ने 23 साल पुराने नियम में बदलाव किए हैं. ऐसे में लोकसभा चुनाव से ठीक पहले इनकी रिहाई को लेकर सवाल उठने लगे हैं कि आखिर महागठबंधन सरकार के लिए आनंद मोहन इतने क्यों जरूरी हैं? उनके बाहर आ जाने से बिहार की सियासत पर कितना असर पड़ेगा? महागठबंधन के लिए वे किस तरह मददगार साबित हो सकते हैं?
अगड़ों को साधने के लिए बिहार में महागठबंधन को एक ऐसे चेहरे की जरूरत थी जिसकी स्वीकार्यरता राज्यभर में हो.आनंद मोहन इस कैटेगरी में पूरी तरह फिट बैठते हैं. रघुवंश प्रसाद सिंह और नरेंद्र सिंह के निधन के बाद आरजेडी में फिलहाल कोई बड़े राजपूत लीडर नहीं है. जगदानंद सिंह राजपूत बिरादरी से आते जरूर हैं, लेकिन वे कभी भी राजपूत लीडर के रूप में स्वीकार्य नहीं हुए. ऐसे में महागठबंधन में राजपूत नेताओं की चल रही कमी को आनंद मोहन दूर कर सकते हैं.
आनंद मोहन की रिहाई की लड़ाई एक लंबे अर्से से चल रही है. कई संगठन इनकी रिहाई के लिए वर्षों से मुहिम चला रहे थे. लंबे संघर्ष के बाद भी आनंद मोहन रिहा नहीं हो पा रहे थे. ऐसे में अब जब महागठबंधन की सरकार में इन्हें रिहा किया गया है तो लोगों की सहानुभूति भी महागठबंधन को मिलेगी. दबी जुबान में आनंद मोहन भी इशारा कर चुके हैं कि नीतीश कुमार ने उन्हें जेल से बाहर निकाला है वे उनकी मदद करेंगे.
आनंद मोहन की स्वीकार्यर्ता सवर्ण के लगभग सभी जातियों में है. भूमिहार और राजपूत का समन्वय बनाकर ही इन्होंने 1994 में लालू के गढ़ वैशाली में उन्हें मात दी थी. तब इन्होंने अपनी पत्नी लवली आनंद को वहां से निर्दलीय चुनाव जीता दिया था.नीतीश कुमार का बीजेपी से अलग होने के बाद सवर्ण वोट बैंक का एक बड़ा तबका उनसे छिटक गया है. सवर्ण वर्ग अभी भी आरजेडी से दूर है. यही कारण है कि तेजस्वी यादव आरजेडी को A to Z की पार्टी बनाने की बात बार-बार करते हैं. ऐसे में महागठबंधन की इस कोशिश को आनंद मोहन कारगर साबित हो सकते हैं.
68 साल के होने के बाद भी आज भी आनंद मोहन की गिनती बिहार के यूथ के आइडल के रूप में होती है. खास कर राजपूत वर्ग के युवा उनसे खासे प्रभावित हैं. ऐसे में महागठबंधन को युवाओं को साथ भी मिलेगा. आनंद मोहन की गिनती एक मुखर वक्ता के रूप में भी की जाती है. सक्रिय राजनीति में रहते हुए आनंद मोहन अपनी आकर्षक भाषण शैली के लिए अगड़ों में हमेशा लोकप्रिय रहे.हालांकि, उनके भाषणों में तब लालू यादव ही निशाने पर रहते थे. तब लालू यादव को धमकाने में भी वो संकोच नहीं करते थे. अब हालात और तस्वीर दोनों अलग है. वे भाजपा पर हमलावर हैं. ऐसे में महागठबंधन को उम्मीद है कि आनंद मोहन के भाषण का जादू एक बार फिर राजपूतों और दूसरी सवर्ण जातियों के सिर चढ़ कर बोलेगा.
आनंद मोहन का कुछ न कुछ असर सभी सीटों पर पड़ेगा. सबसे ज्यादा ध्रुवीकरण कोशी के इलाके में होगा. कोशी क्षेत्र में राजपूत के साथ दूसरी जातियों में भी फैन फॉलोइंग है. कोसी के अंतर्गत आने वाले जिले सहरसा, पूर्णिया, सुपौल, मधेपुरा के इलाके कई जातीय लड़ाईयों के गवाह बने. उन लड़ाईयों में आनंद मोहन सवर्णों के मसीहा के रूप में उभर कर सामने आए.वहां की सभी वर्गों में इनका सम्मान है. ऐसे में आनंद मोहन कोशी के गणित को बदल सकते हैं.
अभी चुनाव तक कई तस्वीर बदल सकती है. दलित वर्गों में महागठबंधन सरकार के इस फैसले से नाराजगी भी हो सकती है. जी कृष्णैया दलित वर्ग के एक बड़े अधिकारी थे. उनकी हत्या के मामले में आनंद मोहन दोषी करार दिए गए थे और सरकार उन्हें छोड़ दी.उनकी पत्नी सामने आकर सरकार से नाराजगी जता चुकी हैं.
बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से 10 लोकसभा सीट ऐसे हैं जहां राजपूत निर्णायक रोल में हैं. यहां 3-4 लाख राजपूत वर्ग के वोटर्स हैं. जबकि 28 लोकसभा क्षेत्र ऐसे हैं जहां इनकी आबादी 1 लाख से ज्यादा है. 2011 की जनगणना के मुताबिक, बिहार की जनसंख्या 10.38 करोड़ थी. इसमें 82.69% आबादी हिंदू और 16.87% आबादी मुस्लिम समुदाय की थी. हिंदू आबादी में 17% सवर्ण, 51% ओबीसी, 15.7% अनुसूचित जाति और करीब 1 फीसदी अनुसूचित जनजाति है. मोटे-मोटे तौर पर यह कहा जाता है कि बिहार में 14.4% यादव समुदाय, कुशवाहा यानी कोइरी 6.4%, कुर्मी 4% हैं. सवर्णों में भूमिहार 4.7%, ब्राह्मण 5.7%, राजपूत 5.2% और कायस्थ 1.5% हैं.