सिटी पोस्ट लाइव : बिहार में हमेशा चुनाव में जातीय समीकरण की अहम् भूमिका रही है.इसबार तेजस्वी यादव ने नए जातीय समीकरण के जरिये NDA के सामने कड़ी चुनौती पेश कर दी थी.पिछले लोक सभा चुनाव में जीरो पर आउट रहनेवाले तेजस्वी यादव इसबार 4 सीटें जितने में कामयाब रहे हैं.इतना ही नहीं बल्कि उनके सहयोगी दल कांग्रेस के खाते में 3 और CPI ML के खाते में 2 सीटें आई हैं. जातीय समीकरण को साधकर ही बिहार में तेजस्वी यादव ने NDA को कड़ी टक्कर दी है. इस बार तीन किलों में सेंधमारी हुई है.
परिसीमन के बाद हुए तीन चुनावों तक पिछड़ा वर्ग व सवर्णों के आधिपत्य वाले ऐसे 19 किले थे. उनकी संख्या घटकर 16 रह गई है.औरंगाबाद और आरा में पिछले चुनाव तक राजपूत समाज को विजयश्री मिली थी. उन दोनों क्षेत्रों से इस बार पिछड़ा-अति पिछड़ा वर्ग से सांसद चुने गए हैं. इसके विपरीत वैश्य समाज को प्राथमिकता देने वाले शिवहर ने राजपूत समाज से अपना प्रतिनिधि चुन लिया है.राजनीतिक हलकों में बिहार के चित्तौड़गढ़ के उपनाम से ख्यात रहे औरंगाबाद के सामाजिक समीकरण में 2009 के चुनाव से ही कुछ परिवर्तन हो गया. उसका कारण परिसीमन था.
परिसीमन ने बिहार के लगभग सभी 40 संसदीय क्षेत्रों के भूगोल और समीकरण में थोड़ा-बहुत बदलाव किया.उसके बाद मात्र जाति के दम पर राजनीति करने वाले कुछ ज्यादा जोर मारने लगे. बावजूद राजपूत समाज ने 2009 से 2019 तक संपन्न हुए तीन चुनावों में औरंगाबाद पर कब्जा बरकरार रखा. इस बार राजद के अभय कुशवाहा चढ़ाई में सफल रहे हैं. आरा में भाजपा के आरके सिंह हैट-ट्रिक से चूक गए.। वहां भाकपा (माले) के सुदामा प्रसाद बाजी मार ले गए हैं. कुशवाहा और सुदामा क्रमश: पिछड़ा और अति पिछड़ा समाज से हैं.
औरंगाबाद के बाद शिवहर और महाराजगंज को क्रमश: बिहार का दूसरा और तीसरा चितौड़गढ़ कहा जाता है. ऐसा उन दोनों संसदीय क्षेत्रों में राजपूत समाज के दम-खम के कारण है.महाराजगंज अपने उस उपनाम को आज भी कायम रहे है, लेकिन शिवहर के मिजाज में परिसीमन के बाद से ही बदलाव आ गया.वहां पिछले तीन चुनावों में वैश्य समाज की रमा देवी विजयी रही थीं. समझौते के तहत वह सीट जदयू के खाते में गई, जिसने लवली आनंद को मैदान में उतारा. लवली का तीर निशाने पर लगा है. तेजस्वी यादव ने रितु जायसवाल को जातीय आधार पर मैदान में उतारा था लेकिन सफलता नहीं मिली.
सामाजिक समीकरण को साधने के उद्देश्य ही जाति आधारित गणना हुई थी. लोकसभा के इस चुनाव में लगभग सभी दल उसका श्रेय लेने की होड़ में रहे. प्रत्याशियों के निर्धारण का वह बड़ा पैमाना रहा और काफी हद तक उसका लाभ भी मिला है.इस बार के चुनाव में हार-जीत के कई और कारण भी रहे, लेकिन यह अटल सत्य है कि बिहार की राजनीति से जाति जाती नहीं . सेंधमारी के तमाम प्रयास के बावजूद अगर जातीय आधिपत्य वाले 16 किले इस बार भी बुलंद रहे तो कोई दो राय नहीं कि वहां बिरादराना वोटों की पहरेदारी पुख्ता रही है.