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मध्यावधि चुनाव की कितनी संभानाएं?

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  •  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने तीसरे कार्यकाल की शुरुआत कर दी है. सरकारी कामकाज संभालते ही पीएम मोदी ने बड़े फैसले लेना शुरू कर दिया है. लेकिन पीएम मोदी का तीसरा कार्यकाल एनडीए के सहयोगियों दलों के सहारे है.ऐसे में राजनीतिक गलियारों में इस बात की चर्चा तेज हो गई है कि क्या देश में मध्यावधि चुनाव की संभावनाएं बनेंगी.आज के इस विशेष कार्यक्रम में इसी विषय पर चर्चा करेगें.इस चर्चा में शामिल होगें पक्ष-विपक्ष के नेता और राजनीतिक पंडित .

नरेंद्र मोदी ने 9 जून को तीसरी बार प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली, लेकिन इस बार उनके करियर में पहली बार उनकी सरकार एनडीए के घटक दलों के सहारे है. राजनीतिक पंडितों का मानना है कि यह बदलाव बीजेपी की विचारधाराओं से जुड़ी योजनाओं पर असर डाल सकता है और पार्टी को ना चाहते हुए भी कुछ मुद्दों पर प्रतिक्रिया देनी पड़ सकती है. ऐसे में पांच साल का कार्यकाल समाप्त होने से पहले चुनाव होने की संभावना है.

वीओ 2 : बीजेपी से चुनाव में क्या गलती हुई और लोक सभा चुनाव में उसके हिंदुत्वा फैक्टर ने क्यों काम नहीं किया, जो पहले काम कर चुका था. उन्होंने यह भी समझाया कि उन्हें उम्मीद है कि बीजेपी के साथी जैसे तेलुगु देशम पार्टी (TDP) और जेडीयू, बीजेपी की नीति प्रस्तावों का कैसे प्रतिक्रिया देंगे और विरोध की संभावनाएं कैसे बन सकती हैं.

 

चुनाव की शुरुआत में, बीजेपी ने ‘मोदी की गारंटी’ और ‘मोदी फिर आएंगे’ जैसे बड़े-बड़े दावे किये. लेकिन, चुनाव के दूसरे और तीसरे चरण में विपक्ष ने अपनी रणनीति बदल ली. उन्होंने मोदी पर हमला करना बंद कर दिया और अर्थव्यवस्था की समस्याओं पर बात करना शुरू कर दिया.बेरोजगारी, महंगाई पर चर्चा शुरू कर दी . बीजेपी को लगा कि इससे मुकाबला करना मुश्किल होगा, इसलिए उन्होंने पूरे माहौल को सांस्कृतिक पहचान  और राष्ट्रवाद के मुद्दों पर ले जाने की कोशिश की. इस तरह, प्रचार अभियान नकारात्मक और हिंदुत्व केंद्रित हो गया.

 

राजनीति में मुसीबत ये है कि लोग जान जाते हैं आप किस बात के लिए खड़े हैं. बीजेपी की हिंदू पहचान अब अच्छी तरह से स्थापित हो चुकी है और उन्हें इस पर अब और जोर देने की जरूरत नहीं थी. चुनाव से पहले के सर्वे में हमने पूछा था कि मोदी सरकार का सबसे अच्छा काम क्या था, तो बिना किसी दबाव के जवाब आया राम मंदिर. इसका मतलब है कि लोग स्पष्ट रूप से जानते थे कि इस सरकार ने हिंदुओं के लिए कुछ किया है. लोगों ने हिंदुत्व को खारिज नहीं किया, लेकिन सवाल करना शुरू कर दिया कि बीजेपी ये बताये कि वो  आगे क्या करनेवाली है. यहीं पर बीजेपी चूक गई, उन्हें लगा कि उन्हें हिंदुत्व के मुद्दे को और ज्यादा उछालने की जरूरत है.

 

 विपक्षी दलों से बहुत ज्यादा उम्मीद करना सही नहीं होगा क्योंकि विपक्ष में रहते हुए वे ज्यादा कुछ नहीं कर सकते. नई सरकार की शासन शैली में विपक्ष को नकारना, उन्हें बाहर रखना, उनकी बात न सुनना और संभवतः उनके खिलाफ सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल करना शामिल होगा. अगर ऐसा हुआ, तो विपक्ष बार-बार पीछे हट जाएगा.विपक्ष मुख्य रूप से मोदी के डर से एकजुट हुआ गठबंधन है, न कि किसी ठोस वैचारिक आधार के कारण.कई लोगों के लिए, संविधान के प्रति उनका नया सम्मान तभी उभरा जब मोदी ने इसे दरकिनार करना और उन्हें जेल में डालना शुरू किया. उनमें से कई 10 साल तक चुप रहे लेकिन उन्हें एहसास हो गया कि यह जीवन-मरण का संकट है. इन विपक्षी सदस्यों के बीच विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता संदिग्ध है. वे यहां से कहां जाएंगे और वे एक-दूसरे के साथ कैसे सहयोग करेंगे, यह अनिश्चित है.

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