लोकसभा के साथ ही विधानसभा चुनाव चाहते हैं नीतीश?

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सिटी पोस्ट लाइव :  “ हम इधर हम ग़ायब हो गए थे. हम फिर आपके साथ हैं. हम आपको आश्वस्त करते हैं कि अब इधर उधर होने वाले नहीं हैं. हम रहेंगे आप ही के साथ. इसलिए ज़रा तेज़ी से यहाँ वाला काम सब हो जाए.” बिहार के औरंगाबाद में 2 मार्च को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने नीतीश कुमार की इस बात पर प्रधानमंत्री मोदी समेत मंच के ज़्यादातर लोग हँस रहे थे और भीड़ से भी ठहाकों की आवाज़ आ रही थी.बिहार में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर साल 2005 से नीतीश कुमार जमे हुए हैं.

साल 2005 के अक्टूबर में हुए विधानसभा चुनाव में भी जेडीयू 88 सीटें जीतने में कामयाबी मिली थी. यहीं से बिहार के मुख्यमंत्री के तौर पर नीतीश का सफ़र शुरू हुआ था. लेकिन साल . 2010 में जेडीयू को बिहार विधान सभा में 115 सीटों पर जीत मिल गई.फिर NDA छोड़कर महागठबंधन के साथ जाने के बाद 2015 के बिहार विधानसभा चुनावों में जेडीयू को 71 सीटों पर जीत मिली थी.लेकिन फिर NDA के साथ आने के बाद 2020 के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी जनता दल यूनाइटेड को महज़ 42 सीटों पर सिमट गई.

नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जेडीयू इसके पीछे एलजेपी के चिराग पासवान को बड़ी वजह मानते हैं.चिराग ने साल 2020 के विधानसभा चुनावों में एनडीए में रहकर भी जेडीयू के उम्मीदवारों के ख़िलाफ़ अपने उम्मीदवार उतारे थे. इससे जेडीयू को सीटों का बड़ा नुक़सान हुआ था.इन्हीं चुनावी आँकड़ों में नीतीश कुमार का सबसे बड़ा दर्द छिपा हुआ है और इसी को बेहतर करने की कोशिश में वो जनवरी में महागठबंधन को छोड़कर एनडीए में वापस आए थे.नीतीश की पार्टी का गिरता ग्राफ़ उन्हें असहज कर रहा है. बिहार के सियासी गलियारों में यह चर्चा लगातार जारी है कि नीतीश कुमार राज्य विधानसभा भंग कर इसी साल होने वाले लोकसभा चुनावों के साथ विधानसभा का चुनाव भी कराना चाहते हैं.बिहार की पिछली महागठबंधन सरकार में नीतीश के सहयोगी और उपमुख्यमंत्री रहे आरजेडी नेता तेजस्वी यादव भी दावा कर चुके हैं कि नीतीश कुमार विधानसभा भंग करना चाहते थे.

दरअसल विधानसभा भंग कर चुनाव कराने में फ़ायदा केवल नीतीश कुमार का हो सकता है. हो सकता है कि उनकी कुछ सीटें बढ़ जाएं.लेकिन इसकी कोई गारंटी नहीं है कि आरजेडी ही सबसे बड़ी पार्टी बने और कांग्रेस या वाम दल भी अपनी सफलता को दोहरा ही लें.नीतीश कुमार के मन में यह हो सकता है कि सहयोगियों के सहारे उनकी विधानसभा सीटों की संख्या बढ़ सकती है.लेकिन नीतीश क़रीब दो दशक से बिहार की सत्ता पर बैठे हैं और माना जाता है कि राज्य में उनके ख़िलाफ़ एंटी इनकंबेंसी से सहयोगी दलों को नुक़सान हो सकता है.माना जाता है कि नीतीश कुमार के महागठबंधन छोड़ने के पीछे यह एक बड़ी वजह थी. इसलिए नीतीश कुमार इसी शर्त पर एनडीए में वापस हुए ताकि बिहार विधानसभा भंग कर लोकसभा के साथ ही राज्य विधानसभा के चुनाव हों.

नीतीश कुमार के पाला बदलकर एनडीए में वापस आने के बाद राज्य की सरकार बने एक महीने से ज़्यादा वक़्त भी गुज़र चुका है. लेकिन नीतीश कुमार मंत्रिमंडल का विस्तार किए बिना अब तक महज़ 8 मंत्रियों के सहारे सरकार चला रहे हैं.भारत के अन्य कई राज्यों के मुक़ाबले बिहार एक ऐसा राज्य है जहाँ विपक्ष काफ़ी मज़ूबत दिखता है. लोकसभा चुनावों के क़रीब आ जाने के बाद भी बिहार में अब तक एनडीए के साझेदारों के बीच सीटों का बंटवारा नहीं हो पाया है.माना जाता है कि नीतीश कुमार अब भी इंतज़ार कर रहे हैं कि बिहार में विधानसभा चुनावों को लेकर पहले कोई फ़ैसला होना चाहिए. हालाँकि इस मुद्दे पर अब तक न तो बीजेपी न ही ख़ुद नीतीश कुमार या उनकी पार्टी की तरफ से खुलकर कुछ भी कहा गया है.

दरअसल बिहार में पिछले लोकसभा चुनाव में एनडीए में बीजेपी, जेडीयू और एलजेपी को मिलाकर तीन दल थे.इन तीन दलों ने मिलकर बिहार की 40 में से 39 लोकसभा सीटें जीती थीं. इसमें बीजेपी 17, जेडीयू 16 और एलजेपी ने 6 सीटों पर कब्ज़ा किया था.अब एनडीए में एलजेपी के दो धड़े, राष्ट्रीय लोक मोर्चा और हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा (सेक्युलर) को मिलाकर छह दल मौजूद हैं.ऐसे में बड़े दलों पर अपनी जीती हुई सीट छोड़ने का दबाव हो सकता है, जबकि छोटे दलों को साझेदारी में ज़्यादा से ज़्यादा सीटें पाने की इच्छा हो सकती है.इसमें चिराग पासवान ख़ुद को रामविलास पासवान का असली राजनीतिक उत्तराधिकारी मानते हैं, जबकि सामने उनके चाचा पशुपति कुमार पारस की राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी है और एलजेपी के छह में से पाँच सांसद उन्हीं के साथ हैं.बिहार में चर्चा यह भी है कि अगर एनडीए में चिराग पासवान की मांग पूरी नहीं होती है तो वो महागठबंधन के साथ भी जुड़ सकते हैं.

उपेंद्र कुशवाहा पिछले लोकसभा चुनावों में महागठबंधन के साथ थे. उन चुनावों में उनकी पार्टी का खाता नहीं खुल पाया था.साल 2014 के चुनावों में वो बीजेपी के साथ थे और उस वक़्त साझेदारी में मिली तीनों सीटों पर उनकी पार्टी की जीत हुई थी.कुशवाहा ख़ुद काराकाट सीट से चुनाव जीते थे. फ़िलहाल काराकाट लोकसभा सीट पर जेडीयू का कब्ज़ा है.वहीं बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी भी पिछली बार महागठबंधन में थे और गया सीट से चुनाव हार गए थे. इस सीट पर भी फ़िलहाल जेडीयू का कब्ज़ा है. यानी बीजेपी ने एनडीए का कुनबा बढ़ाया है तो उसमें हिस्सेदार भी बढ़े हैं.बिहार में विकासशील इंसान पार्टी यानी वीआईपी के मुकेश सहनी को लेकर भी चर्चा है कि वो एनडीए के साथ आ सकते हैं. ऐसे में एक और साझेदार के जुड़ने से एनडीए भले ही ताक़तवर दिखे, लेकिन उसके अंदर सीट बंटवारे की उलझन ज़्यादा बढ़ सकती है.

पिछले लोकसभा चुनाव के बाद हुए विधानसभा चुनावों के आँकड़े भी बताते हैं कि बिहार में विपक्षी दलों की ताक़त बढ़ी है.साल 2020 में बिहार में विधानसभा चुनाव हुए थे. उस समय 243 सीटों की बिहार विधानसभा में राष्ट्रीय जनता दल सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी थी.जबकि उन चुनावों में कांग्रेस और वाम दलों ने भी 19 और 16 सीटें जीती थीं.नीतीश कुमार ख़ुद के दल को आगे देखना चाहते हैं, लेकिन बीजेपी या आरजेडी दोनों में से कोई भी दल ऐसा नहीं चाहता है. अब दोनों ही नीतीश की पार्टी का अंत देख रहे हैं. इसी से नीतीश के लिए असहज हालात पैदा हुए हैं.नीतीश को लगता है कि बीजेपी सीटों के बंटवारे और विधानसभा चुनाव के मुद्दे पर खेल कर रही है. लेकिन वो ख़ुद भी माहिर खिलाड़ी हैं और जीती हुई लोकसभा सीटें छोड़ने को तैयार नहीं होंगे न ही मंत्रिमंडल का विस्तार करेंगे, ताकि समय पर आरजेडी की मदद से सरकार बना लें.

नीतीश कुमार को आमतौर पर ज़ुबान से कम और दिमाग़ से ज़्यादा काम लेने वाले नेताओं में गिना जाता है.इसलिए उनके दिमाग़ में क्या चल रहा है इसका अंदाज़ा लगा पाना कभी भी किसी के लिए आसान नहीं रहा है.हालाँकि अब लोकसभा चुनावों की घोषणा किसी भी दिन हो सकती है, ऐसे में सीटों के बंटवारे से लेकर बिहार की सियासत के कई सवालों का जवाब भी जल्द ही मिलने की उम्मीद है.

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