सिटी पोस्ट लाइव : चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं मायावती ने मंगलवार को अपना स्टैंड साफ़ कर दिया है कि वो चुनाव में अकेले मैदान में उतरेंगी.भले ही अभी मायावती ने ये कह दिया है कि वो आगामी आम चुनाव अकेले लड़ेंगी लेकिन बसपा पर नज़र रखने वाले राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि वो अपने पत्ते तब खोलेंगी जब चुनाव और क़रीब होगा. 80 लोकसभा सीटों वाला उत्तर प्रदेश आम चुनाव के लिहाज़ से सबसे बड़ा राज्य है.एक अनुमान के मुताबिक़ यहां 21 फ़ीसदी आबादी दलितों की है और दलितों के बीच मायावती की अच्छी पैठ मानी जाती है.
31 अगस्त से एक सितंबर तक मुंबई में इंडिया गठबंधन की 26 पार्टियां मिलने वाली हैं और माना जा रहा है कि इसमें सीट शेयरिंग पर बात होगी.राजनीति के जानकार ये बात बार-बार दोहरा रहे हैं कि इंडिया गठबंधन को ये तय करना होगा कि चुनावी लड़ाई द्विपक्षीय हो, यही उनके लिए फ़ायदेमंद होगा.ऐसी संभावना है कि आगामी आम चुनाव एनडीए बनाम इंडिया गठबंधन हो सकता है. ऐसे में मायावती एक गठबंधन चुनने से क्यों दूर हट रही हैं?
बसपा चुनाव बाद गठबंधन में यक़ीन करने वाली पार्टी है. एक परेशानी ये भी है कि मायावती भरोसेमंद साझेदार नहीं हैं. उन्होंने कई मौक़े पर ये साबित किया है कि उन पर यक़ीन नहीं किया जा सकता.””मायावती ने कांग्रेस के साथ विधानसभा चुनाव लड़ा, जीत के बाद बीजेपी के साथ गठजोड़ कर लिया और सरकार बना ली. समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन किया और फिर तोड़कर उन पर आरोप लगाए.”
“एक अहम वजह ये भी है कि मायावती का वोट बैंक ऐसा है कि वह खुल कर बीजेपी के साथ नहीं जा सकतीं और ना ही एनडीए का हिस्सा बन सकती हैं. लेकिन बीजेपी ये चाहती है कि मायावती इस चुनाव में अकेले ही रहें ताकि इससे इंडिया गठबंधन का वोट कटे.” 80 में से 62 सीट जीतने वाली बीजेपी बसपा जैसी बड़ी पार्टी के साथ नहीं जाएगी क्योंकि बीजेपी कभी वो सीटें मायावती को नहीं दे पाएगी, जितनी उनकी मांग होगी. बीजेपी चाहेगी कि मायावती गठबंधन से अलग चुनाव लड़ें और उनके लिए जीत आसान बनाए.
मायावती उत्तर प्रदेश में तीन बार बीजेपी के गठबंधन के साथ मुख्यमंत्री बनीं, ये 2007 का चुनाव था जब मायावती को अपने दम पर बहुमत मिला और चौथी बार राज्य की सीएम वो अकेले अपनी पार्टी के दम पर बनीं.लेकिन इसके बाद से ही मायावती की ताक़त घटने लगी.सबसे हालिया विधानसभा चुनाव में बसपा 403 विधासभा सीटों में से महज़ एक सीट जीत पायी. पार्टी का वोट शेयर 13 फ़ीसदी था.थोड़ा और पीछे जाएं तो 2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा को 403 में से 19 सीटें मिली थीं. वोट शेयर 22 फ़ीसदी था.
अब बात लोकसभा चुनाव की करें तो साल 2019 का चुनाव बसपा ने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन में लड़ा था, बसपा को इस चुनाव में 10 सीटें मिली थीं और सपा का खाता पांच सीटों पर सिमट गया था.इस चुनाव के बाद सपा और बसपा का गठबंधन टूट गया. अखिलेश यादव ने कहा कि हमारा वोट तो बहन जी को ट्रांसफ़र हुआ लेकिन इसमें उनका नुकसान हो गया.वहीं मायावती ने भी चुनाव के बाद दिए गए बयान में कहा कि सपा के साथ जाकर उन्हें चुनाव में नुक़सान हुआ.एक अनुमान के मुताबिक़ उत्तर प्रदेश में दलितों में 65 उपजातियां हैं. इनमें सबसे बड़ी आबादी जाटव समुदाय की है. कुल दलित आबादी का 50 फ़ीसदी हिस्सा जाटव हैं. मायावती ख़ुद इसी समुदाय से आती हैं.
“मायावती अब दलितों के बीच वो दम नहीं रखतीं जो पहले हुआ करता था. उनकी पार्टी जाटवों की पार्टी बन कर रह गई है. दलितों का एक अच्छा ख़ासा तबका बीजेपी के साथ गया है. जाटव और रैदास जैसी जातियां ही अब मायावती के कोर वोटर रह गई हैं. वाल्मीकि, पासी जातियां अब मायावती के साथ नहीं हैं. “अब मायावती की वो ताक़त नहीं रही, जिसके लिए वो जानी जाती थीं, वो अब वोट काट तो सकती हैं लेकिन किंगमेकर नहीं बन सकतीं. मौजूदा हालात में तो कम से कम ऐसा ही लगता है.”
साल 2014 के चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश में बीजेपी की छवि बहुत बदली है. राज्य की राजनीति को क़रीब से समझने वाले लोग मानते हैं कि बीजेपी की छवि जिस तरह पहले ब्राह्मण और बनियों की पार्टी की थी वो आज वैसी नहीं देखी जाती. अब बीजेपी का दायरा ऊंची जातियों की पार्टी से आगे बढ़ कर दलितों और पिछड़ों के बीच पकड़ बना चुकी है. “दलितों में एक तबका बहन जी की पार्टी से मूव कर चुका है और बीते कुछ सालों में मायावती ने अपने पार्टी की स्थिति बेहतर करने के लिए कुछ नहीं किया है. उनकी पार्टी राजस्थान, पंजाब और मध्य प्रदेश में एक प्लेयर हुआ करती थी लेकिन इन राज्यों को तो भूल जाइए वो अपने गृह राज्य में ग़ायब होने लगी हैं. ”
आने वाला लोकसभा चुनाव मायावती और उनकी पार्टी के लिए अस्तित्व बचाने की लड़ाई होगी. बीते चुनावों में पार्टी का गिरता प्रदर्शन तो कम से कम इसी ओर इशारा करता है. “पार्टी के घटते वोट शेयर और सीटें तो मायावती के लिए चुनौती हैं ही, उनके लिए एक बड़ी चुनौती ये भी है कि उनके बड़े नेता उनका साथ छोड़ चुके हैं. स्वामी प्रसाद मौर्या, लालाजी वर्मा और इंद्रजीत जैसे बड़े क़द के नेता अब उनका साथ छोड़ चुके हैं. ऐसे में अकेले पार्टी को ज़िंदा करना मायावती के लिए आने वाले चुनाव में सबसे बड़ी चुनौती है.”भले ही ये कहा जा रहा हो कि मायावती का वोट बैंक दरक रहा है, वो आज उतनी मज़बूत नहीं हैं, जितनी हुआ करती थीं. लेकिन राजनीतिक विशेषज्ञ ये भी मानते हैं कि मायावती इतना दम ज़रूर रखती हैं कि वो आने वाले चुनाव में गठबंधन को नुक़सान पहुंचा सकें.
कहा जा रहा है कि अगर मायावती इंडिया और एनडीए दोनों के साथ चुनाव नहीं लड़ती हैं तो ज़्यादा नुकसान इंडिया गठबंधन का हो सकता है. लेकिन बीजेपी के लिए ये एक ‘मनपसंद’ परिस्थिति होगी, क्योंकि अगर विपक्ष को नुक़सान पहुँचता है तो इससे उसे फ़ायदा होगा.